वही तय करते हैं हमारे लिए ज्या उचित है और वही यह भी बताते हैं कि इस उचित को प्राप्त करने का रास्ता कौन-सा है। और हम यह समझना ही नहीं चाहते कि रास्ता उनके लक्ष्यों तक पहुंचता है, हमारे लक्ष्यों तक नहीं। यह भी एक विडम्बना ही है कि हमारे राजनेताओं से देश की जनता का रिश्ता 'वे' और 'हम' वाला बन गया है। यह विडज़्बना ही नहीं, एक त्रासदी भी है। त्रासदी यह भी है कि हमारी राजनीति लुभावने नारों और जमलों तक सिमटती जा रही है। डन जमलों का इस्तेमाल हमारे राजनेता हमें बहकाने के लिए धडल्ले से करते हैंउन्हें यह कहते हुए भी संकोच नहीं होता कि हमारी फलां बात तो चुनावी जमला था-अर्थात उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए।
शायद धूमिल ने ही लिखा था, 'अजीब है यह देश, जहां रोटी के बजाय भाषा पर बहस होती है।' दशकों पहले कही गयी थी यह बात, पर हम अभी तक 'रोटी' और 'भाषा' का अंतर समझने की आवश्यकता महसूस ही नहीं कर पाये। प्राथमिकताओं की हमारी सूची को धुंधला बना दिया है राजनीति ने। पढ़ने लायक नहीं रही, पढ़ने लायक नहीं रहने दी गयी यह सूची। अब हमारी प्राथमिकताओं का निर्धारण हमारी आवश्यकता से नहीं होता। वे अपनी सुविधा और अपने हितों की नजर से तय करते हैं हमारी प्राथमिकताएं, जिन्हें हमने हमारी 'सेवा' का काम सौंप रखा है। हां, कहते वे भी अपने आप को हमारा सेवक ही हैं, पर हकीकत में वे राज कर रहे हैं हम पर। वे यानी हमारे राजनेता । वही तय करते हैं हमारे लिए क्या उचित है और वही यह भी बताते हैं कि इस उचित को प्राप्त करने का रास्ता कौन-सा है। और हम यह समझना ही नहीं चाहते कि रास्ता उनके लक्ष्यों तक पहुंचता है, हमारे लक्ष्यों तक नहीं। यह भी एक विडम्बना ही है कि हमारे राजनेताओं से देश की जनता का रिश्ता 'वे' और हम' वाला बन गया है। यह विडम्बना ही नहीं, एक त्रासदी भी है। त्रासदी यह भी है कि हमारी राजनीति लुभावने नारों और जुमलों तक सिमटती जा रही है। इन जुमलों का इस्तेमाल हमारे राजनेता हमें बहकाने के लिए धड़ल्ले से करते हैं। उन्हें यह कहते हुए भी संकोच नहीं होता कि हमारी फलां बात तो चुनावी जुमला था-अर्थात उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। कभी कोई गरीबी हटाओ का नारा लगाकर हमें भरमा जाता है और कभी कोई काले धन को हमारे खातों में जमा कराने का आश्वासन देकर । सवाल यह है कि यह जुमलों की राजनीति कब तक चलेगी? ये सवाल न संसद में उठ रहे हैं और न सड़क पर। पर हम इस भ्रम में हैं कि हमारा जनतंत्र फल-फूल रहा है! जनतंत्र के फलने-फूलने की पहली शर्त यह है कि जनता जागरूक हो। इस जागरूकता का सीधा-सा मतलब है जनता अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझे । समझे कि जनतंत्र में राजनीति सत्ता के लिए नहीं होनी चाहिए; समझे कि नेता जनता का सेवक होता है, राजा नहीं। पांच साल के लिए हम अपनी सरकार चुनते हैं, पर इसका मतलब यह नहीं कि एक बार वोट देने के बाद मतदाता आंख-मूंद कर बैठ जाये। नेतृत्व तो यही चाहेगा, क्योंकि उसे अपना वर्चस्व बनाये रखना । इसीलिए लुभावने नारे लगाये जाते हैं, जुमले उछाले जाते हैं। गैर जरूरी मुद्दे राजनीति का कवच बन जाते हैं और जरूरी मुद्दे प्राथमिकताओं की अस्पष्ट बना दी गयी सूची में नीचे कहीं खो जाते हैं ।रोजी, रोटी, कपडा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मद्दों की बात तो होती है, पर इस बात के पीछे न ईमानदारी की ताकत होती है, न किसी प्रकार की प्रतिबद्धता। समूची राजनीति आज सत्ता पाने और सत्ता में बने रहने का हथियार बन कर रह गयी है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सब कुछ जायज मान लिया गया है। ऐसा नहीं है कि यह प्रवृत्ति अभी शुरू हुई है, पहले भी होता था ऐसा। चुनावों के आस-पास अक्सर दिखा जाती थीं राजनेताओं की ऐसी कोशिशें। पर अब तो राजनीति का मतलब ही जैसे भरमाना रह गया है। रोटी और भाषा के उदाहरण के माध्यम से धूमिल जो कह गये हैं, उसका सीधा-सा मतलब यही है कि राजनीति के उद्देश्य बदल गये हैं- और तौर तरीके भी। धर्म, जाति, वर्ग आदि सब राजनीति की शतरंज के मोहरे बना दिये गये हैं। मान लिया गया है कि प्यार और युद्ध की तरह राजनीति में भी सब कुछ जायज़ है!मासूम बच्चियों के साथ होने वाले नृशंस बलात्कार भी अब कथित धर्म के रंग-बिरंगे चश्मों से देखे जाने लगे हैं। अब अम्बेडकर की जय का नारा लगाने के पीछे भी किसी श्रद्धा या सम्मान का भाव नहीं होता, वोट पाने का जरिया बन गया है हमारे संविधान का प्रमुख शिल्पी। दलितों के घरों में जाकर हमारे नेता अब उन जैसा खाना खाते हैं। ऐसे हर मौके पर इस बात की पूरी व्यवस्था रखी जाती है कि मीडिया में इसकी चर्चा हो, अखबारों में चित्र छपें, टी.वी. पर नेताजी को दलित के घर में भोजन करते दिखाया जाये। इन नेताओं को कौन बताये कि दलितों का हितकारी होने और दलितों का हितचिंतक दिखने की प्रतिस्पर्धा में अंतर जनता को दिखता भी है और समझ भी आता है। गांधीजी भी दलित-बस्तियों में जाकर रहते थे, पर वे दलितों का हमदर्द होने का नाटक नहीं करते थे। उनका यह आचरण जनता की प्रेरणा बनता था, वे यह सब वोट के लिए नहीं करते थे। दलितों की तरह ही स्त्रियां भी वोट की इस राजनीति का शिकार बनायी जाती हैं। अर्सा हो गया स्त्रियों को विधायिका में एक-तिहाई आरक्षण देने की मांग उठने और आश्वासन दिये जाने में। सभी राजनीतिक दल स्त्रियों को आरक्षण देने की बात करते हैं, पर संसद में यह प्रस्ताव पारित ही नहीं हो पा रहा है। लेकिन क्यों? सवाल यह भी उठता है कि क्या यह काम कानुन से ही होना जरूरी है? क्यों नहीं राजनीतिक दल एक- तिहाई उम्मीदवारी महिलाओं को दे देते? कौन रोकता है उन्हें? सवाल नीति का नहीं, नीयत का है। यदि हमारे राजनेताओं, राजनीतिक दलों की नीयत ठीक होती तो आज संसद में सिर्फ बारह प्रतिशत और देश की विधानसभाओं में कुल नौ प्रतिशत महिला सांसद-विधायक नहीं होती। राजनीतिक नेतृत्व की नीयत की बेईमानी का एक उदाहरण बेरोजगारी है। बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं नौजवानों को रोजगार देने के। लेकिन जब किसी विधानसभा में चपरासी के पद के लिए अथवा महानगरपालिका में सफाई कर्मचारी के पद के लिए एक-एक लाख युवाओं की कतार लगती है, जब यह पता चलता है कि इस पद की न्यूनतम योग्यता दसवीं या बारहवीं पास होने की है और अभ्यर्थियों में इंजीनियर, सी.ए., स्नातक, एम.बीए आदि की योग्यता प्राप्त युवा कतार में हैं तो हैरानी होती है नेतृत्व के दावों और वादों पर। इस आशय की खबरें अखबारों में छपती हैं, पर किसी जिम्मेदार नेता ने इस स्थिति पर चिंता व्यक्त की हो, ऐसी कोई खबर देखने में तो नहीं आयी। हां, वे सारी घोषणाएं अवश्य होती रहती हैं जिनसे सत्ताधारियों को प्रचार मिलता है हैरानी होती है यह सोचकर कि देश के प्रधानमंत्री को लंदन में होते हए भी बलात्कारियों को सजा देने के लिए अध्यादेश लागू करने की याद आती है, पर इस बात की चिंता उन्हें नहीं है कि युवा बेरोजगार क्यों हैं, किसानों की आत्महत्याएं क्यों थम नहीं रहीं, भ्रष्टाचार पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही, अदालतों में लंबित पड़े मामलों की संख्या कम क्यों नहीं हो रहीजफिर धूमिल की याद आ रही है। उसने कहा था, 'दरअसल, अपने यहां जनतंत्र/ एक ऐसा तमाशा है। जिसकी जान/ मदारी की भाषा है।'