यशवंत सिन्हा-रुसवाई से तल्ख तेवरों तक

कभी भाजपा के दिग्गज रहे यशवंत सिन्हा ने जब पिछले दिनों पटना में आयोजित एक सम्मेलन में घोषणा की—'मैं भाजपा से अपने संबंध विच्छेद कर रहा हूं' तो बामुश्किल सुर्खियां बन पाईं। उनकी अगुवाई वाला 'राष्ट्रीय मंच' सियासी हलचल मचाता नजर न आयादरअसल, पिछले चार वर्षों से वे भाजपा के खिलाफ जिस तरह बगावती तेवर अपनाये हुए थे, ये उसकी स्वाभाविक परिणति ही थीजिसको लेकर देश में आम राय थी कि उनके राजनीतिक करिअर का क्या हश्र होगा। वैसे वर्ष 2014 के आम चुनाव के वक्त उनका सार्वजनिक बयान था कि अगले आम चुनाव तक मैं 82 साल का हो चुका हूंगा तो फिर सक्रिय राजनीतिक जीवन का निर्वहन न कर पाऊंगा। ऐसे में यदि वर्ष 2019 में भाजपा सत्ता में आती है या नहीं, तो भी उनके राजनीतिक जीवन का एक वर्ष बाकी तो है। 'राष्ट्रीय मंच' के गठन के वक्त सिन्हा का कहना था कि वे दलगत राजनीति से संन्यास ले रहे हैं।' मगर मंच पर अन्य राजनीतिक दलों की मौजूदगी कुछ और कहती है। वे कहते हैं कि पटना तानाशाही के खिलाफ लोकतांत्रिक आवाज बुलंद करने वाले जयप्रकाश नारायण की कर्मभूमि है, इसलिए राष्ट्रीय मंच की शुरुआत यहीं से की गई है। इसके बावजूद विपक्षी दलों को भाजपा की नब्ज पहचानने वाले यशवंत सिन्हा रास आते हैं। यह बात अलग है कि हजारीबाग के यशवंत सिन्हा को बिहार को आंदोलन की भूमि बनाने में खासी मशक्कत करनी पड़ेगी। एक तो राज्य में राजग सरकार और दूसरे केंद्र सरकार में उनके पुत्र जयंत सिन्हा मंत्री हैं ।दरअसल, यशवंत सिन्हा ने पिछले चार सालों में हर मंच का उपयोग मोदी सरकार पर हमला करने के लिए किया। 'अरुण जेटली ने बेड़ा गर्क कर दिया' जैसे कठोर बयान लगातार सामने आते रहे। दरअसल, जेटली के बहाने नरेंद्र मोदी उनके निशाने पर रहे हैं। अरुण जेटली को दिए गए मंत्रालयों को लेकर गाहे-बगाहे वे टिप्पणी करते रहे। आर्थिक नीतियों खासकर नोटबंदी व जीएसटी के क्रियान्वयन को लेकर वे मखर आलोचक रहे इसमें दो राय नहीं कि सिन्हा को अच्छी राजनीतिक समझ है. वे सफल प्रशासनिक अधिकारी व काबिल मंत्री रहे हैं। आर्थिक विषयों में दखल रखने के साथ-साथ वे विदेश मामलों के जानकार भी हैं। पिछले आम चुनाव के दौरान पार्टी ने उनकी इच्छानुसार बेटे जयंत को टिकट दिया और मंत्री भी बनाया। चर्चा है कि वे चाहते थे कि उन्हें झारखंड का मुख्यमंत्री बना दिया जाए। मगर पार्टी ने इसे तरजीह नहीं दी। फिर वे ब्रिक्स का चेयरमैन बनना चाहते थे। यह भी नहीं हआ तो वे पार्टी पर हमलावर हो गए। पार्टी के नेता उन्हें थाली में छेद' करने वाला बताते हैं। उनका कहना है कि 'यदि थाली का भोजन विषाक्त हो जाए तो छेद करना जरूरी है।' यही वजह है कि तमाम कोशिशों के बावजद उनकी प्रधानमंत्री से मुलाकात संभव नहीं हो पायी कछ लोग सिन्हा के अलग-थलग पड़ने की वजह, उनकी संघ या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे अनुषंगिक संगठनों की पष्ठभमि न होना है। ढाई दशक तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहने के बाद वे वर्ष 1984 में सक्रिय राजनीति में आये। वे पहली बार वर्ष 1990 में चंद्रशेखर सरकार में वित्तमंत्री बने। उनके आलोचक मानते हैं कि उनमें अर्थव्यवस्था को लेकर कोई विशेषज्ञता नहीं थी और तात्कालिक अर्थव्यवस्था की पतली हालत के बेहतर प्रबंधन के लिहाज से चंद्रशेखर ने उन्हें वित्तमंत्री बनाया। सिन्हा स्वयं अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि बारहवीं कक्षा तक अर्थशास्त्र पढ़ा है। आगे इतिहास से स्नातक और राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की। वैसे भी चंद्रशेखर की सरकार एक साल भी नहीं चल पाई और वास्तविक आर्थिक चुनौतियों का मुकाबला पी.वी. नरसिम्हा राव व उनके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह को करना पड़ा। फिर जब 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो यशवंत सिन्हा एक बार फिर वित्तमंत्री बने । सरकार महज तेरह माह चलीवर्ष 1999 में फिर वाजपेयी सरकार बनी तो एक बार फिर यशवंत सिन्हा वित्तमंत्री बने।एक सच्चाई यह भी है कि हार्वर्ड से पढ़े मोहन गुरुस्वामी को यशवंत सिन्हा का सलाहकार बनाया गया था, जिन्हें बाद में यशवंत सिन्हा ने हटवाया था। वैसे वाजपेयी सरकार में पार्टी का एक धड़ा उनका मुखर विरोधी था। आडवाणी उन्हें वित्तमंत्री के रूप में देखना चाहते थे तो अटल बिहारी वाजपेयी जसवंत सिंह को। हालांकि, बाद में यशवंत सिन्हा को वित्त मंत्रालय से हटाकर विदेश मंत्रालय दिया गया। कहा जाता है कि संघ भी उनकी वित्तमंत्री की भूमिका को लेकर नाखुश था